
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मुजफ्फरनगर पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी भाषा पर गंभीर आपत्ति जताते हुए कड़ी टिप्पणी की है। एक युवती की ओर से दायर हैबियस कॉर्पस याचिका की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पुलिस द्वारा उसके “कब्ज़े में लेने” जैसे शब्दों का प्रयोग किए जाने पर गहरी नाराजगी जताई। अदालत ने स्पष्ट कहा कि “कब्ज़ा चल-अचल संपत्ति का होता है, इंसानों का नहीं।”
क्या है पूरा मामला?
हाई कोर्ट मुजफ्फरनगर के एक मामले पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें बालिग युवती ने दावा किया कि पुलिस ने उसे गैर-कानूनी रूप से हिरासत में लिया और अपने मेमो में इसे “कब्ज़ा लेने” के रूप में दर्ज किया। अदालत ने इसे बेहद अनुचित बताते हुए कहा कि पुलिस को हिरासत (Custody) और कब्ज़े (Possession) के बीच का अंतर समझना चाहिए।
युवती ने कोर्ट में स्पष्ट कहा कि वह बालिग है, उसने अपने प्रेमी से विवाह किया है और वह उसी के साथ रहना चाहती है, न कि अपने माता-पिता के साथ। इसलिए वह अपनी मर्जी से किसी भी स्थान पर रहने के लिए स्वतंत्र है।
पुलिस की भाषा पर तल्ख टिप्पणी
कोर्ट ने कहा—
- “कब्ज़ा” शब्द का प्रयोग संपत्ति के संदर्भ में किया जाता है,
- किसी व्यक्ति, विशेषकर एक बालिग महिला के लिए यह शब्द इस्तेमाल करना अमानवीय और विधिक रूप से गलत है।
युवती और उसके पति ने पुलिस द्वारा कथित अवैध हिरासत को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
शादी और FIR का विवाद
युवती और उसके पति का कहना है कि उन्होंने 29 जनवरी 2024 को दिल्ली में प्रेम विवाह किया था।
लेकिन युवती के पिता ने 2023 में अपहरण का केस दर्ज कराया था। बाद में 29 जून 2025 को मुजफ्फरनगर के नई मंडी थाने में भारतीय न्याय संहिता (B.N.S.) की विभिन्न धाराओं के तहत एक और एफआईआर दर्ज की, जिसमें बेटी को नाबालिग बताते हुए उसके बहकाए जाने के आरोप लगाए गए।
इस एफआईआर के खिलाफ दंपती ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिस पर 13 अगस्त 2025 को कोर्ट ने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
स्टे ऑर्डर के बावजूद हिरासत
याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस को स्टे ऑर्डर की जानकारी देने के बावजूद जांच अधिकारी ने 8 सितंबर 2025 को युवती को हिरासत में ले लिया और अपने रिकॉर्ड में लिखा कि उसे “कब्ज़े” में लिया गया है।
कोर्ट ने इसे कानून का घोर उल्लंघन बताते हुए पुलिस की कार्यशैली पर कठोर टिप्पणी की।