Tuesday, December 16

एंटी इनकंबेंसी गायब, रिकॉर्ड मतदान और आखिरी चुनाव की चर्चा — क्या नीतीश कुमार 10वीं बार लेंगे शपथ या होगी विदाई?

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पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 64.69 फीसदी रिकॉर्ड मतदान ने सबका ध्यान खींचा है। यह आंकड़ा सिर्फ वोट प्रतिशत का नहीं, बल्कि जनता की मनोदशा का संकेत माना जा रहा है।
एनडीए और महागठबंधन दोनों इसे अपने पक्ष का परिणाम बता रहे हैं, मगर असली सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार एक बार फिर सत्ता में लौटेंगे, या यह उनके राजनीतिक जीवन का अंतिम अध्याय साबित होगा?

🗳️ मतदान में जोश, एंटी इनकंबेंसी गायब

इस बार बिहार की गलियों से लेकर गांवों तक एंटी इनकंबेंसी का माहौल नजर नहीं आ रहा।
20 वर्षों से राज्य की बागडोर संभाल रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर जनता का भरोसा कायम दिख रहा है।
कुरहनी विधानसभा के मतदाता सबु मिर्जा कहते हैं, “मैं आरजेडी का समर्थक हूं, पर नीतीश कुमार का विरोध करने की कोई वजह नहीं दिखती। उन्होंने बिहार को स्थिरता दी है।”
वहीं मुजफ्फरपुर के मोहम्मद अमानुल्लाह का कहना है, “नीतीश किसी जाति या धर्म के नहीं, पूरे बिहार के नेता हैं। उन्होंने राज्य को उत्तर प्रदेश जैसा नहीं बनने दिया, जहां बुलडोजर राजनीति होती है।”

🧭 नीतीश के ग्राउंड पर खेल रही हैं सभी पार्टियां

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में इस बार भी चुनाव नीतीश के मैदान पर ही खेला जा रहा है
आरजेडी अब भी “जंगलराज” की छवि से बाहर निकलने में जुटी है, जबकि बीजेपी भी इस बार धार्मिक ध्रुवीकरण के बजाय सुशासन और विकास के मुद्दे पर लड़ाई लड़ रही है।
स्पष्ट है कि विपक्ष हो या सहयोगी, सबको नीतीश की रेखा पर चलना पड़ रहा है।

⚙️ नीतीश कुमार — बिहार की राजनीति का खूंटा

40 साल की सक्रिय राजनीति में नीतीश कुमार ने हर परिस्थिति में खुद को प्रासंगिक बनाए रखा है।
जेपी आंदोलन से निकले नीतीश ने 1994 में लालू यादव के खिलाफ समता पार्टी बनाकर मोर्चा खोला था।
2005 से अब तक, 8 महीने छोड़कर, वे लगातार मुख्यमंत्री पद पर बने रहे हैं
उन्होंने न कभी जातीय उकसावे की राजनीति की और न ही व्यक्तिगत हमलों का सहारा लिया।
बीजेपी और आरजेडी — दोनों के साथ उन्होंने समय-समय पर गठबंधन बदले, पर सीएम की कुर्सी कभी नहीं छोड़ी।

🧩 राजनीतिक सफर — संघर्ष से सत्ता तक

नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक और 1989 में सांसद बने।
उन्होंने वी.पी. सिंह सरकार में कृषि मंत्री, और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया।
2000 में वे पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत न होने के कारण 7 दिन में इस्तीफा देना पड़ा।
2005 में पूर्ण बहुमत के साथ वापसी की और तब से अब तक बिहार की राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूमती रही है।

🔄 गठबंधन बदले, सत्ता नहीं

दो दशकों में नीतीश कुमार ने चार बार सहयोगी बदले —
2014 और 2022 में महागठबंधन में गए, फिर एनडीए में लौट आए।
हर बार समीकरण बदले, पर सत्ता की बागडोर उनके हाथों में ही रही।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस बार नीतीश कुमार का आखिरी चुनाव हो सकता है, और यदि जनता ने उन्हें फिर मौका दिया, तो वे 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।

📅 14 नवंबर को होगा फैसला

14 नवंबर को होने वाले मतदान के परिणाम तय करेंगे कि सुशासन बाबू का युग जारी रहेगा या नहीं।
बिहार की जनता अब तय करेगी —
क्या वह स्थिरता, अनुभव और शासन के प्रतीक नीतीश कुमार पर फिर भरोसा जताएगी,
या तेजस्वी यादव को मंडल राजनीति के नए उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार करेगी।

संक्षेप में, बिहार का यह चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन की लड़ाई नहीं, बल्कि दो पीढ़ियों की राजनीति के टकराव का ऐतिहासिक मोड़ है —
जहां एक तरफ नीतीश कुमार का अनुभव है, तो दूसरी तरफ तेजस्वी यादव की नई उम्मीद।
अब देखना यह है कि 14 नवंबर को बिहार किस पर भरोसा दोहराता है।

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